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अजो॑हवीदश्विना तौ॒ग्र्यो वां॒ प्रोळ्ह॑: समु॒द्रम॑व्य॒थिर्ज॑ग॒न्वान्। निष्टमू॑हथुः सु॒युजा॒ रथे॑न॒ मनो॑जवसा वृषणा स्व॒स्ति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ajohavīd aśvinā taugryo vām proḻhaḥ samudram avyathir jaganvān | niṣ ṭam ūhathuḥ suyujā rathena manojavasā vṛṣaṇā svasti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अजो॑हवीत्। अ॒श्वि॒ना॒। तौ॒ग्र्यः। वा॒म्। प्रऽऊ॑ळ्हः। स॒मु॒द्रम्। अ॒व्य॒थिः। ज॒ग॒न्वान्। निः। तम्। ऊ॒ह॒थुः॒। सु॒ऽयुजा॑। रथे॑न। मनः॑ऽजवसा। वृ॒ष॒णा॒। स्व॒स्ति ॥ १.११७.१५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:117» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:15» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषणा) उत्तम बलवाले (अश्विना) विद्या और उत्तम शीलों में व्याप्त स्त्री-पुरुषो ! तुम दोनों जो (वाम्) तुम्हारा (तौग्र्यः) बल से सिद्ध हुआ (प्रोढः) उत्तमता से प्राप्त (अव्यथिः) जिसको व्यथा कष्ट नहीं है (जगन्वान्) जो निरन्तर गमन करनेवाला सेना का समुदाय है वह (समुद्रम्) समुद्र का (अजोहवीत्) बार-बार तिरस्कार करे अर्थात् उससे उत्तीर्ण हो उसकी गम्भीरता न गिने, (तम्) उस उक्त सेना समुदाय को (सुयुजा) सुन्दरता से जुड़े (मनोजवसा) मन के समान वेग से जाते हुए (रथेन) रमणीय विमान आदि यानसमुदाय से (स्वस्ति) सुखपूर्वक (निरूहथुः) निर्वाहो अर्थात् एक देश से दूसरे देश को पहुँचाओ ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - जब ब्रह्मचर्य किये पुरुष शत्रुओं के विजय के लिये समुद्र के पार जाना चाहें तब स्त्री और सेना के साथ ही वेगवान् यानों से जावें-आवें ॥ १५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे वृषणाऽश्विना दम्पती युवां यो वां तौग्र्यः प्रोढोऽव्यथिर्न जगन्वान् सेनासमुदायः समुद्रमजोहवीत्तं सुयुजा मनोजवसा रथेन स्वस्ति निरुहथुः ॥ १५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अजोहवीत्) पुनःपुनः स्पर्द्धेत (अश्विना) विद्यासुशीलव्यापिनौ (तौग्र्यः) तुग्रेण बलेन निर्वृत्तः सेनावृन्दः (वाम्) युवयोः (प्रोढः) प्रकर्षेणोढः प्राप्तः (समुद्रम्) (अव्यथिः) अविद्यमाना व्यथिर्व्यथा यस्य सः (जगन्वान्) भृशं गन्ता (नः) नितराम् (तम्) (ऊहथुः) प्रापयेतम् (सुयुजा) सुष्ठुयुक्तेन (रथेन) (मनोजवसा) मनोवद्वेगेन गच्छता (वृषणा) सुबलौ (स्वस्ति) सुखेन ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - यदा कृतब्रह्मचर्य्यः पुरुषः शत्रुविजयाय समुद्रपारं गन्तुमिच्छेत्तदा सभार्यः सबल एव वेगवद्भिर्यानैर्गच्छेदागच्छेच्च ॥ १५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा ब्रह्मचर्ययुक्त पती शत्रूंवर विजय प्राप्त करण्यासाठी समुद्र पार करू इच्छितो तेव्हा पत्नी व सेनेसह वेगवान यानाबरोबर जावे-यावे. ॥ १५ ॥